Chapter 3, Verse 41
Text
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3.41।।
Transliteration
tasmāt tvam indriyāṇyādau niyamya bharatarṣhabha pāpmānaṁ prajahi hyenaṁ jñāna-vijñāna-nāśhanam
Word Meanings
tasmāt—therefore; tvam—you; indriyāṇi—senses; ādau—in the very beginning; niyamya—having controlled; bharata-ṛiṣhabha—Arjun, the best of the Bharatas; pāpmānam—the sinful; prajahi—slay; hi—certainly; enam—this; jñāna—knowledge; vijñāna—realization; nāśhanam—the destroyer
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Translations
In English by Swami Adidevananda
Therefore, O Arjuna, control your senses from the outset and slay this sinful thing that destroys both knowledge and discernment.
In English by Swami Sivananda
Therefore, O best of the Bharatas, control your senses first and then kill this sinful thing, which destroys knowledge and realization.
In Hindi by Swami Ramsukhdas
।।3.41।। इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! तू सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।
In English by Swami Sivananda
3.41 तस्मात् therefore, त्वम् you, इन्द्रियाणि the senses, आदौ in the beginning, नियम्य having controlled, भरतर्षभ O best of the Bharatas, पाप्मानम् the sinful, प्रजहि kill, हि surely, एनम् this, ज्ञानविज्ञाननाशनम् the destroyer of knowledge and realisation (wisdom).Commentary Jnana is knowledge obtained through the study of scriptures. This is indirect knowledge or Paroksha Jnana. Vijnana is direct knowledge or personal experience or Anubhava through Selfrealisation or Aparoksha Jnana. Control the senses first and then kill desire.
In Hindi by Swami Ramsukhdas
।।3.41।। व्याख्या--'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ'--इन्द्रियोँको विषयोंमें भोग-बुद्धिसे प्रवृत्त न होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धिसे अथवा साधन-बुद्धिसे प्रवृत्त होने देना ही उनको वशमें करना है। तात्पर्य है कि इन्द्रियोंकी विषयोंमें रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो। (गीता 18। 10) रागपूर्वक प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्यको पतनकी ओर ले जाते हैं। इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यको जाननेके लिये शास्त्र ही प्रमाण है। (गीता 16। 24) शास्त्रके अनुसार कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो जाती है।काम को मारनेके लिये सबसे पहले इन्द्रियोंका नियमन करनेके लिये कहनेका कारण यह है कि जबतक मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें रहता है तबतक उसकी दृष्टि तत्त्वकी ओर नहीं जाती; और तत्त्वकी ओर दृष्टि गये बिना अर्थात् तत्त्वका अनुभव हुए बिना 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता।मनुष्यकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे ही होती है। इसलिये वह सबसे पहले इन्द्रियोँके विषयोंमें ही फँसता है, जिससे उसमें उन विषयोंकी कामना पैदा हो जाती है। कामना-सहित कर्म करनेसे मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है और इससे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोँको वशमें करके निष्काम-भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, उनका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है। 'एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम्'--'ज्ञान'पदका अर्थ शास्त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है; जैसे--ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्मोंके अन्तर्गत 'ज्ञानम्'पद शास्त्रीय ज्ञानके लिये ही आया है। (गीता 18। 42)। परन्तु यहाँ प्रसङ्गके अनुसार 'ज्ञान' का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यको अलग-अलग जानना) लेना ही उचित प्रतीत होता है। 'विज्ञान' पदका अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभव-ज्ञान, असली ज्ञान या बोध) है।विवेक और तत्त्वज्ञान--दोनों ही स्वतःसिद्ध हैं। तत्त्व-ज्ञानका अनुभव तो सबको नहीं है, पर विवेकका अनुभव सभीको है। मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे है। अर्जुनके प्रश्न-(मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है,) में आये 'अनिच्छन्नपि' पदसे भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्यमें विवेक है और इस विवेकसे ही वह पाप और पुण्य-दोनोंको जानता है और पाप नहीं करना चाहता। पाप न करनेकी इच्छा विवेकके बिना नहीं होती। परन्तु यह 'काम' उस विवेकको ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता।विवेक जाग्रत् होनेसे मनुष्य भविष्यपर अर्थात् परिणामपर दृष्टि रखकर ही सब कार्य करता है। परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण परिणामकी ओर दृष्टि ही नहीं जाती। परिणामकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही वह पाप करता है।इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है उस विवेकको भी जब यहकाम जाग्रत् नहीं होने देता तब जिसका अनुभव सबको नहीं है उस तत्त्वज्ञानको तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा इसलिये यहाँ 'काम' को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध) दोनोंका नाश करनेवाला बताया गया है।वास्तवमें यहकाम ज्ञान और विज्ञानका नाश (अभाव) नहीं करता, प्रत्युत उन दोनोंको ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता। उन्हें ढक देनेको ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है। कारण कि ज्ञान-विज्ञानका कभी नाश होता ही नहीं। नाश तो वास्तवमें 'काम' का ही होता है। जिस प्रकार नेत्रोंके सामने बादल आनेपरबादलोंने सूर्यको ढक दिया' ऐसा कहा जाता है, पर वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता, प्रत्युत नेत्र ढके जाते हैं, उसी प्रकार 'कामनाने ज्ञान-विज्ञानको ढक दिया' ऐसा कहा तो जाता है, पर वास्तवमें ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते, प्रत्युत बुद्धि ढकी जाती है।