Gita

Chapter 1, Verse 25

Text

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।

Transliteration

bhīṣhma-droṇa-pramukhataḥ sarveṣhāṁ cha mahī-kṣhitām uvācha pārtha paśhyaitān samavetān kurūn iti

Word Meanings

bhīṣhma—Grandsire Bheeshma; droṇa—Dronacharya; pramukhataḥ—in the presence; sarveṣhām—all; cha—and; mahī-kṣhitām—other kings; uvācha—said; pārtha—Arjun, the son of Pritha; paśhya—behold; etān—these; samavetān—gathered; kurūn—descendants of Kuru; iti—thus


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Translations

In English by Swami Adidevananda

Sanjaya said: Thus addressed by Arjuna, Sri Krishna drew up the best of chariots between the two armies, in full view of Bhisma, Drona, and all the other kings, O Dhrtarastra. He then said, "O Arjuna, behold these assembled Kauravas."

In English by Swami Sivananda

In front of Bhishma and Drona, and all the rulers of the earth, he said: "O Arjuna, son of Pritha, behold these Kurus gathered together."

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.24 -- 1.25।। संजय बोले - हे भरतवंशी राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस तरह कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख'।  


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In English by Swami Sivananda

1.25 भीष्मद्रोणप्रमुखतः in front of Bhishma and Drona, सर्वेषाम् of all, च and, महीक्षिताम् rulers of the earth, उवाच said, पार्थ O Partha, पश्य behold, एतान् these, समवेतान् gathered, कुरून् Kurus, इति thus.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 1.25।। व्याख्या--   'गुडाकेशेन'--'गुडाकेश'  शब्दके दो अर्थ होते हैं (1)  'गुडा'  नाम मुड़े हुएका है और  'केश'  नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं, उसका नाम  'गुडाकेश'  है। (2)  'गुडाका'  नाम निद्राका है और  'ईश'  नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले--ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम  'गुडाकेश' है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको  'गुडाकेश'  कहा गया है।  'एवमुक्तः'--  जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान्का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया।  'हृषीकेशः'--  इन्द्रियोंका नाम  'हृषीक'  है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ  'हृषीकेश'  कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है!  'सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्'--  दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान्ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया।  'भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्'--  उस रथको भी भगवान्ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्यमुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें।  'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति कुरु'--  पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र--ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख--ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों; चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके --इसी भावसे भगवान्ने यहाँ  'पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्'  कहा है। नहीं तो भगवान्  'पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति'--  ऐसा भी कर सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको  'कुरुन् पश्य'  कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे। अर्जुनने कहा था कि 'इनको मैं देख लूँ'-- 'निरीक्षे'  (1। 22)  'अवेक्षे'  (1। 23); अतः यहाँ भगवान्को  'पश्य'  (तू देख ले)--ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान्को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही  'कुरुन् पश्य'  (इन कुरुवंशियोंको देख)--ऐसा कहा है। कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम--इन दोनोंमें बहुत अन्तर है। कुटुम्बमें ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'ये मेरे हैं'--ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान्का भक्तमें विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान्का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'यह मेरा ही है'--ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें क्रिया तथा पदार्थ-(शरीरादि-) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें मूढ़ता-(मोह-) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्यपालनमें विस्मृति तो हो सकती है पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान्की प्रधानता होती है।  सम्बन्ध   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कुरूवंशियोंको देखनेके लिये कहा। उसके बाद क्या हुया इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकोंमें करते हैं।