Gita

Chapter 17, Verse 16

Text

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।

Transliteration

manaḥ-prasādaḥ saumyatvaṁ maunam ātma-vinigrahaḥ bhāva-sanśhuddhir ity etat tapo mānasam uchyate

Word Meanings

manaḥ-prasādaḥ—serenity of thought; saumyatvam—gentleness; maunam—silence; ātma-vinigrahaḥ—self-control; bhāva-sanśhuddhiḥ—purity of purpose; iti—thus; etat—these; tapaḥ—austerity; mānasam—of the mind; uchyate—are declared as


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Translations

In English by Swami Adidevananda

Serenity of mind, benevolence, silence, self-control, and purity of mind—these are known as austerity of the mind.

In English by Swami Sivananda

Serenity of mind, good-heartedness, self-control, and purity of nature—this is called mental austerity.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।17.16।।मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।


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In English by Swami Sivananda

17.16 मनःप्रसादः serenity of mind, सौम्यत्वम् goodheartedness, मौनम् silence, आत्मविनिग्रहः selfcontrol, भावसंशुद्धिः purity of nature, इति thus, एतत् this, तपः austerity, मानसम् mental, उच्यते is called.Commentary Just as a lake which is without a ripple on it surface is very tranil, so also the mind which is free from modifications, from wandering thoughts of sensual objects, is ite serene and calm.Saumyatvam Intent on the welfare of all beings the state of mind which may be inferred from its effects, such as brightness of the face, etc.Maunam Even silence of speech is necessarily preceded by the control of thought, and so the effect is here used to stand for the cause, viz., the control of thought this is the result of the control of thought so far as it concerns speech, silence of the mind, ability to remain calm even amidst disturbing factors from without. Mauna is the condition of the Muni (sage), i.e., practice of meditation with onepointedness of mind.Atmavinigrahah Selfcontrol A general control of the mind. Asamprajnata Samadhi wherein all the modifications of the mind are controlled. The mind cannot run after the senses and the senses cannot run after their objects. In Mauna there is control of thought so far as it concerns speech.Bhavasamsuddhih Purity of nature Honesty of purpose freedom from cunningness in dealing with other people the pure state of the mind wherein there is absence of lust, anger, greed, etc.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।17.16।। व्याख्या --   मनःप्रसादः -- मनकी प्रसन्नताको मनःप्रसाद कहते हैं। वस्तु, व्यक्ति, देश, काल, परिस्थिति, घटना आदिके संयोगसे पैदा होनेवाली प्रसन्नता स्थायीरूपसे हरदम नहीं रह सकती क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है, वह वस्तु स्थायी रहनेवाली नहीं होती। परन्तु दुर्गुणदुराचारोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर जो स्थायी तथा स्वाभाविक प्रसन्नता प्रकट होती है, वह हरदम रहती है और वही प्रसन्नता मन, बुद्धि आदिमें आती है, जिससे मनमें कभी अशान्ति होती ही नहीं अर्थात् मन हरदम प्रसन्न रहता है।मनमें अशान्ति, हलचल आदि कब होते हैं जब मनुष्य धनसम्पत्ति, स्त्रीपुत्र आदि नाशवान् चीजोंका सहारा ले लेता है। जिसका सहारा उसने ले रखा है, वे सब चीजें आनेजानेवाली हैं, स्थायी रहनेवाली नहीं हैं। अतः उनके संयोगवियोगसे उसके मनमें हलचल आदि होती है। यदि साधक न रहनेवाली चीजोंका सहारा छोड़कर नित्यनिरन्तर रहनेवाले प्रभुका सहारा ले ले, तो फिर पदार्थ, व्यक्ति आदिके संयोगवियोगको लेकर उसके मनमें कभी अशान्ति, हलचल नहीं होगी।मनकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके उपाय(1) सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, देश, काल, घटना आदिको लेकर मनमें राग और द्वेष पैदा न होने दे।(2) अपने स्वार्थ और अभिमानको लेकर किसीसे पक्षपात न करे।(3) मनको सदा दया, क्षमा, उदारता आदि भावोंसे परिपूर्ण रखे।(4) मनमें प्राणिमात्रके हितका भाव हो।(5) हितपरिमितभोजी नित्यमेकान्तसेवी सकृदुचितहितोक्तिः स्वल्पनिद्राविहारः। अनुनियमनशीलो यो भजत्युक्तकाले स लभत इव शीघ्रं साधुचित्तप्रसादम्।।(सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह 372) जो शरीरके लिये हितकारक एवं नियमित भोजन करनेवाला है, सदा एकान्तमें रहनेके स्वभाववाला है, किसीके पूछनेपर कभी कोई हितकी उचित बात कह देता है अर्थात् बहुत ही कम मात्रामें बोलता है, जो सोना और घूमना बहुत कम करनेवाला है। इस प्रकार जो शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार खानपानविहार आदिका सेवन करनेवाला है, वह साधक बहुत ही जल्दी चित्तकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है। -- इन उपायोंसे मन सदा प्रसन्न रहता है।सौम्यत्वम् -- हृदयमें हिंसा, क्रूरता, कुटिलता, असहिष्णुता, द्वेष आदि भावोंके न रहनेसे एवं भगवान्के गुण, प्रभाव, दयालुता, सर्वव्यापकता आदिपर अटल विश्वास होनेसे साधकके मनमें स्वाभाविक ही सौम्यभाव रहता है। फिर उसको कोई टेढ़ा वचन कह दे, उसका तिरस्कार कर दे, उसपर बिना कारण दोषारोपण करे, उसके साथ कोई वैरद्वेष रखे अथवा उसके धन, मान, महिमा आदिकी हानि हो जाय, तो भी उसके सौम्यभावमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता।मौनम् -- अनुकूलताप्रतिकूलता, संयोगवियोग, रागद्वेष, सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंको लेकर मनमें हलचलका न होना ही वास्तवमें मौन है (टिप्पणी प0 853)।शास्त्रों, पुराणों और सन्तमहापुरुषोंकी वाणियोंका तथा उनके गहरे भावोंका मनन होता रहे गीता, रामायण, भागवत आदि भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थोंमें कहे हुए भगवान्के गुणोंका, चरित्रोंका सदा मनन होता रहे संसारके प्राणी किस प्रकार सुखी हो सकते हैं सबका कल्याण किनकिन उपायोंसे हो सकता है किनकिन सरल युक्तियोंसे हो सकता है उनउन उपायोंका और युक्तियोंका मनमें हरदम मनन होता रहे -- ये सभी मौन शब्दसे कहे जा सकते है।आत्मविनिग्रहः -- मन बिलकुल एकाग्र हो जाय और तैलधारावत् एक ही चिन्तन करता रहे -- इसको भी मनका निग्रह कहते हैं परन्तु मनका सच्चा निग्रह यही है कि मन साधकके वशमें रहे अर्थात् मनको जहाँसे हटाना चाहें, वहाँसे हट जाय और जहाँ जितनी देर लगाना चाहें, वहाँ उतनी देर लगा रहे। तात्पर्य यह है कि साधक मनके वशीभूत होकर काम नहीं करे, प्रत्युत मन ही उसके वशीभूत होकर काम करता रहे। इस प्रकार मनका वशीभूत होना ही वास्तवमें आत्मविनिग्रह है।भावसंशुद्धिः -- जिस भावमें अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग हो और दूसरोंकी हितकारिता हो, उसे,भावसंशुद्धि अर्थात् भावकी महान् पवित्रता कहते हैं। जिसके भीतर एक भगवान्का ही आसरा, भरोसा है, एक भगवान्का ही चिन्तन है और एक भगवान्की तरफ चलनेका ही निश्चय है, उसके भीतरके भाव बहुत जल्दी शुद्ध हो जाते हैं। फिर उसके भीतर उत्पत्तिविनाशशील संसारिक वस्तुओंका सहारा नहीं रहता क्योंकि संसारका सहारा रखनेसे ही भाव अशुद्ध होते हैं।इत्येतत्तपो मानसमुच्यते -- इस प्रकार जिस तपमें मनकी मुख्यता होती है, वह मानस (मनसम्बन्धी) तप कहलाता है। सम्बन्ध --   अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस तपका वर्णन करते हैं।