Gita

Chapter 18, Verse 13

Text

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।

Transliteration

pañchaitāni mahā-bāho kāraṇāni nibodha me sānkhye kṛitānte proktāni siddhaye sarva-karmaṇām

Word Meanings

pañcha—five; etāni—these; mahā-bāho—mighty-armed one; kāraṇāni—causes; nibodha—listen; me—from me; sānkhye—of Sānkya; kṛita-ante—stop reactions of karmas; proktāni—explains; siddhaye—for the accomplishment; sarva—all; karmaṇām—of karmas


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Translations

In English by Swami Adidevananda

Learn from Me, O Arjuna, these five causes for the accomplishment of all acts, as described in Sankhya-krtanta—the science of exact understanding of things—for the accomplishment of works.

In English by Swami Sivananda

Learn from Me, O mighty-armed Arjuna, these five causes, as declared in the Sankhya system, for the accomplishment of all actions.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.13।।हे महाबाहो ! कर्मोंका अन्त करनेवाले सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं, इनको तू मेरेसे समझ।


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In English by Swami Sivananda

18.13 पञ्च five, एतानि these, महाबाहो O mightyarmed, कारणानि causes, निबोध learn, मे from Me, सांख्ये in the Sankhya, कृतान्ते which is the end of all actions, प्रोक्तानि as declared, सिद्धये for the accomplishment, सर्वकर्मणाम् of all actions.Commentary The Self has no connection whatevr with activity. Nature does everything. The Self is the silent witness. He remains indifferent. The whole superstructure of human activity is the result of the five welldefined causes which are enumerated in the following verse.Etani These Which are going to be mentioned.Sankhya Vedanta Knowledge of the Self as taught in the Vedanta (the Upanishads) puts an end to all actions. This is the reason why the term Kritante (the end of actions) is used here. When the knowledge of the Self arises, all actions terminate. This is taught in chapter II, verse 46 To the Brahman who has known the Self al the Vedas are of so much use as is a reservoir of water in a place where there is a flood everywhere. Again, in verse 33 of chapter IV, it is said All actions in their entirety, O Arjuna, culminate in knowledge. Vedanta, therefore, which imparts knowledge of the Self, is the end of action. A liberated sage who has attained the knowledge of the Self in accordance with the instructions laid down in the Vedanta becomes a Kritakritya (one who has done everything and has nothing more to do).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.13।। व्याख्या --   पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि -- हे महाबाहो जिसमें सम्पूर्ण कर्मोंका अन्त हो जाता है, ऐसे सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण विहित और निषिद्ध कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बताये गये हैं। स्वयं (स्वरूप) उन कर्मोंमें हेतु नहीं है।निबोध मे -- इस अध्यायमें भगवान्ने जहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन आरम्भ किया है, वहाँ निबोध क्रियाका प्रयोग किया है (18। 13, 50), जब कि दूसरी जगह श्रृणु क्रियाका प्रयोग किया है (18। 4, 19, 29, 36, 45, 64)। तात्पर्य यह है कि सांख्यसिद्धान्तमें तो निबोध पदसे अच्छी तरह समझनेकी बात कही है और दूसरी जगह श्रृणु पदसे सुननेकी बात कही है। अतः सांख्यसिद्धान्तको गहरी रीतिसे समझना चाहिये। अगर उसे अपनेआप (स्वयं) से गहरी रीतिसे समझा जाय, तो तत्काल तत्त्वका अनुभव हो जाता है।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् -- कर्म चाहे शास्त्रविहित हों, चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों, चाहे शारीरिक हों, चाहे मानसिक हों, चाहे वाचिक हों, चाहे स्थूल हों और चाहे सूक्ष्म हों -- इन सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब पुरुषका इन कर्मोंमें कर्तृत्व रहता है, तब कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं, और जब पुरुषका इन कर्मोंके होनेमें कर्तृत्व नहीं रहता, तब कर्मसिद्धि तो होती है, पर कर्मसंग्रह नहीं होता, प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे, संसारमात्रमें परिवर्तन होता है अर्थात् नदियाँ बहती हैं, वायु चलती है, वृक्ष बढ़ते हैं, आदिआदि क्रियाएँ होती रहती है, परन्तु इन क्रियाओँसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् ये क्रियाएँ पापपुण्यजनक अथवा बन्धनकारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमानसे ही कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटनेपर क्रियामात्रमें अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव -- ये चार हेतु ही होते हैं (गीता 18। 14)।यहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन हो रहा है। सांख्यसिद्धान्तमें विवेकविचारकी प्रधानता होती है, फिर भगवान्ने सर्वकर्मणां सिद्धये वाली कर्मोंकी बात यहाँ क्यों छेड़ी कारण कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसङ्ग है। क्षत्रिय होनेके नाते युद्ध उनका कर्तव्यकर्म है। इसलिये कर्मयोगसे अथवा सांख्ययोगसे ऐसे कर्म करने चाहिये, जिससे कर्म करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहे -- यह बात भगवान्को कहनी है। अर्जुनने सांख्यका तत्त्व पूछा है, इसलिये भगवान् सांख्यसिद्धान्तसे कर्म करनेकी बात कहना आरम्भ करते हैं।अर्जुन स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करना चाहते थे अतः उनको यह समझाना था कि कर्मोंका ग्रहण और त्याग -- दोनों ही कल्याणमें हेतु नहीं हैं। कल्याणमें हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृतिसे अपरिवर्तनशील अविनाशी अपने स्वरूपका सम्बन्धविच्छेद ही है। उस सम्बन्धविच्छेदकी दो प्रक्रियाएँ हैं -- कर्मयोग और सांख्ययोग। कर्मयोगमें तो फलका अर्थात् ममताका त्याग मुख्य है और सांख्ययोगमें अहंताका त्याग मुख्य है। परन्तु ममताके त्यागसे अहंताका और अहंताके त्यागसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंतामें भी ममता होती है जैसे -- मेरी बात रहे, मेरी बात कट न जाय -- यह मैंपनके साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता(मेरापन)को छोड़नेसे अहंता(मैंपन) छूट जाती है (टिप्पणी प0 895)। ऐसे ही पहले अहंता होती है, तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है, तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ अहंता(मैंपन)का ही त्याग कर दिया जायगा, वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी। सम्बन्ध --   सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु कौनसे हैं अब यह बताते हैं।