Gita

Chapter 18, Verse 55

Text

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।

Transliteration

bhaktyā mām abhijānāti yāvān yaśh chāsmi tattvataḥ tato māṁ tattvato jñātvā viśhate tad-anantaram

Word Meanings

bhaktyā—by loving devotion; mām—me; abhijānāti—one comes to know; yāvān—as much as; yaḥ cha asmi—as I am; tattvataḥ—in truth; tataḥ—then; mām—me; tattvataḥ—in truth; jñātvā—having known; viśhate—enters; tat-anantaram—thereafter


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Translations

In English by Swami Adidevananda

Through devotion, he comes to know Me fully—who and what I am in reality, who I am and how I am. Knowing Me thus in truth, he forthwith enters into Me.

In English by Swami Sivananda

By devotion, he knows Me in truth, who and what I am; then, having known Me in truth, he immediately enters into the Supreme.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.55।।उस पराभक्तिसे मेरेको, मैं जितना हूँ और जो हूँ -- इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है।


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In English by Swami Sivananda

18.55 भक्त्या by devotion, माम् Me, अभिजानाति (he) knows, यावान् what, यः who, च and, अस्मि (I) am, तत्त्वतः in truth, ततः then, माम् Me, तत्त्वतः in truth, ज्ञात्वा having known, विशते (he) enters, तत् that, अनन्तरम् afterwards.Commentary My devotee, O Arjuna, who has attained to union with Me through singleminded and unflinching devotion is verily My very Self. Devotion culminates in knowledge. Devotion begins with two and ends in one. ParaBhakti (supreme devotion) and Jnana are one. Devotion is the mother. Knowledge is the son. By devotion he knows that I am allpervading pure,consciousness he knows that I am nondual, unborn, decayless, causeless, selfluminous, indivisible, unchanging he knows that I am destitute of all the differences caused by the limiting adjuncts he knows that I am the support, source, womb, basis, and substratum of everything he knows that I am the ruler of all beings he knows that I am the Supreme Purusha, the controller of Maya, and that this world is a mere appearance. Thus knowing Me in truth or in essence, he enters into Me soon after attaining Selfknowledge.The act of knowing and the act of entering are not two distinct acts. Knowing is becoming. Knowing is attaining Selfknowledge. To know That is to become That. Entering is knowing or beoming That. Entering is the attainment of Selfknowledge or Selfrealisation. These are all jugglery of words only. Knowing and entering are synonymous terms. It is very difficult to understand or comprehend transcendental spiritual matters. The teachers use various terms or expressions, analogies, similes, parables, stories, etc. to make the aspirant grasp the matter clearly and lucidly. Words are imperfect and languages are defective. They cannot fully express the inner spiritual experiences. The teacher somehow or other expresses to the students or aspirants these spiritual ideas. The aspirant himself will have to realise the Self. That is beyond the reach of words of expressions or analogies of similes. How can there be similes for that nondual Brahman These words are a sort of help or prop for the aspirants to lean upon in the beginning to understand spiritual matters. When he realises the Self, these words are of no value to him. He himself becomes an embodiment of knowledge.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।18.55।। व्याख्या --   भक्त्या मामभिजानाति -- जब परमात्मतत्त्वमें आकर्षण, अनुराग हो जाता है, तब साधक स्वयं उस परमात्माके सर्वथा समर्पित हो जाता है, उस तत्त्वसे अभिन्न हो जाता है। फिर उसका अलग कोई (स्वतन्त्र) अस्तित्व नहीं रहता अर्थात् उसके अहंभावका अतिसूक्ष्म अंश भी नहीं रहता। इसलिये उसको प्रेमस्वरूपा प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाती है। उस भक्तिसे परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है।,ब्रह्मभूतअवस्था हो जानेपर संसारके सम्बन्धका तो सर्वथा त्याग हो जाता है, पर मैं ब्रह्म हूँ, मैं शान्त हूँ, मैं निर्विकार हूँ, ऐसा सूक्ष्म अहंभाव रह जाता है। यह अहंभाव जबतक रहता है, तबतक परिच्छिन्नता और पराधीनता रहती है। कारण कि यह अहंभाव प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति पर है इसलिये पराधीनता रहती है। परमात्माकी तरफ आकृष्ट होनेसे, पराभक्ति होनेसे ही यह अहंभाव मिटता है (टिप्पणी प0 949.1)। इस अहंभावके सर्वथा मिटनेसे ही तत्त्वका वास्तविक बोध होता है।यावान् -- सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने अर्जुनको समग्ररूप सुननेकी आज्ञा दी कि मेरेमें जिसका मन आसक्त हो गया है, जिसको मेरा ही आश्रय है, वह अनन्यभावसे मेरे साथ दृढ़तापूर्वक सम्बन्ध रखते हुए मेरे जिस समग्ररूपको जान लेता है, उसको तुम सुनो। यही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके अन्तमें कही कि जरामरणसे मुक्ति पानके लिये जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं, वे ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्मको अर्थात् सम्पूर्ण निर्गुणविषयको जान लेते हैं और अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझको अर्थात् सम्पूर्ण सगुणविषयको जान लेते हैं।इस प्रकार निर्गुण और सगुणके सिवाय राम, कृष्ण, शिव, गणेश, शक्ति, सूर्य आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होकर परमात्मा लीला करते हैं, उनको भी जान लेना -- यही पराभक्तिसे यावान् अर्थात् समग्ररूपको जानना है।यश्चास्मि तत्त्वतः -- वे ही परमात्मा अनेक रूपोंमें, अनेक आकृतियोंमें, अनेक शक्तियोंको साथ लेकर, अनेक कार्य करनेके लिये बारबार प्रकट होते हैं, और वे ही परमात्मा अनेक सम्प्रदायोंमें अपनीअपनी भावनाके अनुसार अनेक इष्टदेवोंके रूपमें कहे जाते हैं। वास्तवमें परमात्मा एक ही हैं। इस प्रकार मैं जो हूँ -- इसे तत्त्वसे जान लेता है।ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् -- ऐसा मुझे तत्त्वसे जानकर तत्काल (टिप्पणी प0 949.2) मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है अर्थात् मेरे साथ भिन्नताका जो भाव था, वह सर्वथा मिट जाता है।तत्त्वसे जाननेपर उसमें जो अनजानपना था, वह सर्वथा मिट जाता है और वह उस तत्त्वमें प्रविष्ट हो जाता है। यही पूर्णता है और इसीमें मनुष्यजन्मकी सार्थकता है।विशेष बातजीवका परमात्मामें प्रेम (रति, प्रीति या आकर्षण) स्वतः है। परन्तु जब यह जीव प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब वह परमात्मासे विमुख हो जाता है और उसका संसारमें आकर्षण हो जाता है। यह आकर्षण ही वासना, स्पृहा, कामना, आशा, तृष्णा आदि नामोंसे कहा जाता है।इस वासना आदिका जो विषय (प्रकृतिजन्य पदार्थ) है, वह क्षणभङ्गुर और परिवर्तनशील है तथा यह जीवात्मा स्वयं, नित्य और अपरिवर्तनशील है। परन्तु ऐसा होते हुए भी प्रकृतिके साथ तादात्म्य होनेसे यह परिवर्तनशीलमें आकृष्ट हो जाता है। इससे इसको मिलता तो कुछ नहीं, पर कुछ मिलेगा -- इस भ्रम, वासनाके कारण यह जन्ममरणके चक्करमें पड़ा हुआ महान् दुःख पाता रहता है। इससे छूटनेके लिये भगवान्ने योग बताया है। वह योग जडतासे सम्बन्धविच्छेद करके परमात्माके साथ नित्ययोगका अनुभव करा देता है।गीतामें मुख्यरूपसे तीन योग कहे हैं -- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इन तीनोंपर विचार किया जाय तो भगवान्का प्रेम तीनों ही योगोंमें है। कर्मयोगमें उसको कर्तव्यरति कहते हैं अर्थात् वह रति कर्तव्य होती है -- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः (18। 45)। [कर्मयोगकी यह रति अन्तमें आत्मरतिमें परिणत हो जाती है (गीता 2। 55 3। 17) और जिस कर्मयोगीमें भक्तिके संस्कार हैं, उसकी यह रति भगवद्रतिमें परिणत हो जाती है।] ज्ञानयोगमें उसी प्रेमको आत्मरति कहते हैं अर्थात् वह रति स्वरूपमें होती है -- योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः (5। 24)। और भक्तियोगमें उसी प्रेमको भगवद्रति कहते हैं अर्थात् वह रति भगवान्में होती है (टिप्पणी प0 950.1) -- तुष्यन्ति च रमन्ति च (10। 9)। इस प्रकार इन तीनों योगोंमें रति होनेपर भी गीतामें भगवद्रति की विशेषरूपसे महिमा गायी गयी है।तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी -- इन तीनोंसे भी योगी (समतावाला) श्रेष्ठ है (गीता 6। 46)। तात्पर्य यह है कि जडतासे सम्बन्ध रखते हुए बड़ा भारी तप करनेपर, बहुतसे शास्त्रोंका (अनेक प्रकारका) ज्ञानसम्पादन करनेपर और यज्ञ, दान, तीर्थ आदिके बड़ेबड़े अनुष्ठान करनेपर जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब अनित्य ही होता है, पर योगीको नित्यतत्त्वकी प्राप्ति होती है। अतः तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी -- इन तीनोंसे योगी श्रेष्ठ है। इस प्रकारके कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, हठयोगी, लययोगी आदि सब योगियोंमें भी भगवान्ने भक्तियोगी को सर्वश्रेष्ठ बताया है (गीता 6। 47)। यही भक्तियोगी भगवान्के समग्ररूपको जान लेता है। सांख्ययोगी भी पराभक्तिके द्वारा उस समग्ररूपको जान लेता है। उसी समग्ररूपका वर्णन यहाँ यावान् पदसे हुआ है (टिप्पणी प0 950.2)।इस प्रकरणके आरम्भमें अन्तःकरणकी शुद्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुआ साधक जिस प्रकार ब्रह्मको प्राप्त होता है -- यह कहनेकी प्रतिज्ञा की और बताया कि ध्यानयोगके परायण होनेसे वह वैराग्यको प्राप्त होता है। वैराग्यसे अहंकार आदिका त्याग करके ममतारहित होकर शान्त होता है। तब वह ब्रह्मप्राप्तिका पात्र होता है। पात्र होते ही उसकी ब्रह्मभूतअवस्था हो जाती है। ब्रह्मभूतअवस्था होनेपर संसारके सम्बन्धसे जो रागद्वेष, हर्षशोक आदि द्वन्द्व होते थे, वे सर्वथा मिट जाते हैं तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हो जाता है। सम होनेपर,पराभक्ति प्राप्त हो जाती है। वह पराभक्ति ही वास्तविक प्रीति है। उस प्रीतिसे परमात्माके समग्ररूपका बोध हो जाता है। बोध होते ही उस तत्त्वमें प्रवेश हो जाता है -- विशते तदनन्तरम्।अनन्यभक्तिसे तो मनुष्य भगवान्को तत्त्वसे जान सकता है, उनमें प्रविष्ट हो सकता है और उनके दर्शन भी कर सकता है (गीता 11। 54) परन्तु सांख्ययोगी भगवान्को तत्त्वसे जानकर उनमें प्रविष्ट तो होता है, पर भगवान् उसको दर्शन देनेमें बाध्य नहीं होते। कारण कि उसकी साधना पहलेसे ही विवेकप्रधान रही है, इसलिये उसको दर्शनकी इच्छा नहीं होती। दर्शन न होनेपर भी उसमें कोई कमी नहीं रहती अतः कमी माननी नहीं चाहिये।यहाँ उस तत्त्वमें प्रविष्ट हो जाना ही अनिर्वचनीय प्रेमकी प्राप्ति है। इसी प्रेमको नारदभक्तिसूत्रमें प्रतिक्षण वर्धमान कहा है (टिप्पणी प0 951)। इस प्रेममें सर्वथा पूर्णता हो जाती है अर्थात् उसके लिये करना, जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। इसलिये न करनेका राग रहता है, न जाननेकी जिज्ञासा रहती है, न जीनेकी आशा रहती है, न मरनेका भय रहता है और न पानेका लालच ही रहता है।जबतक भगवान्में पराभक्ति अर्थात् परम प्रेम नहीं होता, तबतक ब्रह्मभूतअवस्थामें भी मैं ब्रह्म हूँ यह सूक्ष्म अहंकार रहता है। जबतक लेशमात्र भी अहंकार रहता है, तबतक परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव नहीं होता। परन्तु मैं ब्रह्म हूँ यह सूक्ष्म अहंभाव तबतक जन्ममरणका कारण नहीं बनता, जबतक उसमें प्रकृतिजन्य गुणोंका सङ्ग नहीं होता क्योंकि गुणोंका सङ्ग होनेसे ही बन्धन होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। उदाहरणार्थ -- गाढ़ नींदसे जगनेपर साधारण मनुष्यमात्रको सबसे पहले यह अनुभव होता है कि मैं हूँ। ऐसा अनुभव होते ही जब नाम, रूप, देश, काल जाति आदिके साथ स्वयंका सम्बन्ध जुड़ जाता है, तब मैं हूँ यह अहंभाव शुभअशुभ कर्मोंका कारण बन जाता है, जिससे जन्ममरणका चक्कर चल पड़ता है। परन्तु जो ऊँचे दर्जेका साधक होता है अर्थात् जिसकी निरन्तर ब्रह्मभूतअवस्था रहती है, उसके सात्त्विक ज्ञान (18। 20) में सब जगह ही अपने स्वरूपका बोध रहता है। परन्तु जबतक साधकका सत्त्वगुणके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक नींदसे जगनेपर तत्काल मैं ब्रह्म हूँ अथवा सब कुछ एक परमात्मा ही है -- ऐसी वृत्ति पकड़ी जाती है और मालूम होता है कि नींदमें यह वृत्ति छूट गयी थी, मानो उसकी भूल हो गयी थी और अब पीछे उस तत्त्वकी जागृति हो गयी है, स्मृति आ गयी है। गुणातीत हो जानेपर अर्थात् गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर विस्मृति और स्मृति -- ऐसी दो अवस्थाएँ नहीं होतीं अर्थात् नींदमें भूल हो गयी और अब स्मृति आ गयी -- ऐसा अनुभव नहीं होता, प्रत्युत नींद तो केवल अन्तःकरणमें आयी थी, अपनेमें नहीं, अपना स्वरूप तो ज्योंकात्यों रहा -- ऐसा अनुभव रहता है। तात्पर्य यह है कि निद्राका आना और उससे जगना -- ये दोनों प्रकृतिमें ही हैं, ऐसा उसका स्पष्ट अनुभव रहता है। इसी अवस्थाको चौदहवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा है कि प्रकाश अर्थात् नींदसे जगना और मोह अर्थात् नींदका आना -- इन दोनोंमें गुणातीत पुरुषके किञ्चिन्मात्र भी रागद्वेष नहीं होते। सम्बन्ध --   पहले श्लोकमें अर्जुनने संन्यास और त्यागके तत्त्वके विषयमें पूछा तो उसके उत्तरमें भगवान्ने चौथेसे बारहवें श्लोकतक कर्मयोगका और इकतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक कर्मयोगका तथा संक्षेपमें भक्तियोगका वर्णन किया और तेरहवेंसे चालीसवें श्लोकतक विचारप्रधान सांख्ययोगका तथा उन्चासवेंसे पचपनवें श्लोकतक ध्यानप्रधान सांख्ययोगका एवं संक्षेपमें पराभक्तिकी प्राप्तिका वर्णन किया। अब भगवान् शरणागतिकी प्रधानतावाले भक्तियोगका वर्णन आरम्भ करते हैं।